Wednesday, 21 February 2018

राजस्थान चित्रकला की शैली

  • राजस्थानी चित्रशैली का पहला वैज्ञानिक विभाजन आनन्द कुमार स्वामी ने सन् 1916 ई. में अपनी पुस्तक राजपूताना पेन्टिंग्समें प्रस्तुत किया।
  • भौगोलिक एवं सांस्कृतिक आधार पर राजस्थान चित्रकला की शैलियों का वर्गीकरण
  • मेवाड चित्रशैली (स्कूल):- उदयपुर, चांवड, नाथद्वारा, देवगढ
  • मारवाड स्कूलः- जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, किशनगढ़
  • ढूंढाड स्कूलः- आमेर, जयपुर, अलवर, उनियारा, शेखावाटी
  • हाडौती स्कूलः- कोटा, बूंदी, झालावाड़
  • राजस्थानी चित्रकला का प्रारम्भिक और मौलिक रूप मेवाड़ शैली में दिखाई देता है, इसलिए इसे राजस्थानी चित्रशैलियों की जनक शैली कहा जाता है। 1260 में चित्रित श्रावक प्रतिक्रमणसूत्रचूर्णि नामक चित्रित ग्रंथ इसी शैली का प्रथम उदाहरण है।

मेवाड शैली-
  • राजस्थानी चित्रकला की जन्म भूमि मेदपाट (मेवाड़) है।
  • मेवाड़ राज्य राजस्थानी चित्रकला का सबसे प्राचीन केन्द्र माना जाता है।
  • 1260 में चित्रित श्रावकप्रतिक्रमण सूत्रचूर्णि नामक चित्रित ग्रंथ इस शैली का प्रथम उदाहरण है।
  • 1261 में मेवाड़ के महाराजा तेजसिंह के काल में रचित श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूर्णी इस शैली का प्रथम चित्रित ग्रन्थ है।
  • इस समय साहबदीन ने महाराणाओं के व्यक्ति चित्र बनाये
  • जगतसिंह प्रथम के समय राजमहल में चित्तेरों की ओवरीनाम से कला विद्यालय स्थापित किया गया। इसे तस्वीरां रो कारखानोनाम से भी पुकारा जाता था। 
  •  प्रमुख चित्रकार- मनोहर लाल, गंगाराम, साहिबदीन, कृपाराम और जगन्नाथ प्रमुख है।
  • राजा अमरसिंह के काल से इस शैली पर मुगल प्रभाव दिखाई देता है।
  • मेवाड़ चित्र शैली का वास्तविक विकास महाराजा अमर सिंह के काल में सर्वाधिक हुआ।
  • महाराजा अमर सिंह के काल में गीत गोविन्द, रागमाला, भागवत, रामायण, महाभारत इत्यादि धार्मिक ग्रन्थों के कथानकों पर चित्र बने थे।
  • मेवाड़ चित्र शैली का स्वर्ण युग महाराजा जगत सिंह के काल को माना जाता है।
विशेषताएं-
  • लाल-पीले रंग का अधिक प्रयोग,
  • गरूड़ नासिका, परवल की खड़ी फांक से नेत्र,
  • घुमावदार लम्बी अंगुलियां, अलंकारों की अधिकता और चेहरों की जकड़न आदि इस शैली की प्रमुख विशेषताएं हैं।
  • मेवाड़ चित्र शैली मे सर्वाधिक लाल एवं काले रंगों का प्रयोग हुआ है।
  • मेवाड़ चित्र शैली में सर्वाधिक कदम्ब के वृक्षों का चित्रण हुआ है।
  • मेवाड़ चित्र शैली में पंचतन्त्र के कथानकों पर जो चित्र बने है उन्हीं मे से एक चित्र के दो नायकों का नाम कलीला-दमना है।
  • मेवाड़ चित्र शैली में सर्वाधिक श्रीकृष्ण की लीलाओं के चित्र बने है।
चावण्ड शैली
  • प्रारम्भिक विकास महाराणा प्रताप के काल में
  • स्वर्णकाल अमरसिंह प्रथम का काल
  • चित्रकार- नीसारदीन
  • उसने रागमालानामक चित्र बनाया।
नाथद्वारा शैली-
  • इसमें श्रीनाथजी आकर्षण के प्रमुख केन्द्र हैं।
  • श्रीनाथ जी को कृष्ण का प्रतीक मानकर विविध कृष्ण लीलाओं को चित्रों में अंकित करने की प्रथा यहां प्रचलित हैं।
  • श्रीनाथ जी के स्वरूप के पीछे बड़े आकार के कपड़े पर जो पर्दे बनाये जाते हैं उन्हें पिछवाई कहते है, जो नाथद्वारा शैली की मैलिक देन हैं।
  • इस शैली की पृष्ठभूमि में सघन वनस्पति दर्शायी गयी है जिसमें केले के वृक्ष की प्रधानता है।
  • 1672 में महाराणा राजसिंह के द्वारा राजसमन्द के नाथद्वारा में श्रीनाथ जी के मन्दिर की स्थापना के साथ ही नाथद्वारा शैली का विकास हुआ जिसे वल्लभ चित्र शैली के नाम से भी जाना जाता है।
  • नाथद्वारा शैली मे मेवाड़ की वीरता, किशनगढ़ का श्रृंगार तथा ब्रज के प्रेम भी समन्वित अभिव्यक्ति हुई है।
  • नाथद्वारा चित्र शैली में श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं के सर्वाधिक चित्र बने है।
  • इस के प्रमुख चित्रकार- नारायण, चतुर्भुज, घासीराम, उदयराम।

देवगढ़ शैली-
  • जब महाराणा जयसिंह के राज्यकाल में रावत द्वारिकादास चूंडावत ने देवगढ़ ठिकाना 1680 ई. में स्थापित किया तदुपरान्त देवगढ़ शैलीका जन्म हुआ। यहां के रावत सोंलहवे उमरावकहलाते हैं।
  • इस शैली में शिकार, हाथियों की लड़ाई, राजदरबार का दृश्य, कृष्ण-लीला आदि के चित्र विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
  • इस शैली के भित्ति चित्र अजाराकी ओवंरी मोती महल आदि देखने को मिलते हैं।
  • इस शैली को मारवाड़, ढूंढाड़ एवं मेवाड़ की समन्वित शैली के रूप में देखा जाता है।
  • इस शैली में हरे, पीले रंगों का प्रयोग अधिक हुआ है।
  
मारवाड़ स्कूल
 1.  जोधपुर शैली-
  •  मारवाड़ में राव मालदेव के समय इस शैली का स्वतंत्र रूप से विकास हुआ। इस शैली में पुरूष लम्बे चौडे गठीले बदन के, स्त्रियां गठीले बदन की, बादामी आंखें, वेशभूषा ठेठ राजस्थानी और पीले रंग की प्रधानता होती थी।
  • चित्रों के विषय नाथ चरित्र, भागवत, पंचतंत्र, ढोला-मारू, ‘मूमलदे-निहालदे’, ढोला-मारू, उजली-जेठवा आदि लोकगाथाएं होती थी। चित्रकारों में किशनदास भाटी, अमर सिंह भाटी, वीरसिंह भाटी, देवदास भाटी, शिवदास भाटी, रतन भाटी, नारायण, गोपालदास, छज्जू, कालूराम आदि प्रमुख हैं।
  • इस चित्र शैली में प्रेमाख्यानों के नायक-नायिकाओं के भाव-भंगिमाओं का सुंदर चित्रण हुआ है।
  • बारहमासा चित्रण तत्कालीन सांस्कृमिक परिवेश में नायक-नायिका के मनोभावों का सफल उद्घाटन करते है।
  • मारवाड़ शैली में लाल, पीले रंग का बाहुल्य है। हाशियें में भी पीले रंग का प्रयोग किया गया हैं।
  • वीरजी चित्रकार द्वारा 1623 ई. में निर्मित रागमाला चित्रणका ऐतिहासिक महत्त्व हैं। जोधपुर शैली में महाराजा जसवन्तसिंह के समय में कृष्ण चरित्र की विविधता और मुगल शैली का प्रभाव इस समय के चित्रों में दृष्टव्य है।
  • स्वर्णकाल जसवंत सिंह प्रथम का काल
  • विषय- राजसी ठाठ-बाट, दरबारी दृश्य
  • 687 में शिवनाथ द्वारा बनायी गयी धातु की मूर्ति जो वर्तमान पिण्डवाड़ा ( सिरोही) मे है इस चित्र शैली का मूल आधार है।
  • इस शैली में सर्वाधिक श्रृंगार रत्न प्रधान चित्र बने है।
  • इस चित्र शैली में सर्वाधिक लाल एवं पीले रंगों का प्रयोग हुआ है।
  • इसमें सर्वाधिक आम के वृक्षों का चित्रांकन हुआ है।
  • इस शैली के नायक एवं नायिकाओं को गठीले कद-काठी के चित्रांकित किया गया है।
  • इस शैली में राग-रागिनी, ढोला-मारू तथा धार्मिक ग्रन्थों कथानकों पर चित्र बने है।
  • राव मालदेव के काल में मारवाड़ चित्र शैली पर मुगल शैली का प्रभाव पड़ा था।
  • मुगल शैली से प्रभावित मारवाड़ चित्र शैली जोधपुर चित्र शैली कहलायी।
  • 1623 में वीरजी नामक चित्रकार द्वारा बनाया गया रागमाला का चित्र इस शैली का सबसे श्रेष्ठ उदाहरण है।



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