Tuesday, 6 February 2018

राजस्थान के लोक वाद्य



  • वे वाद्य यंत्र जो लोक गीत एवं लोक नृत्यों के साथ प्रयुक्त होते हैं लोकवाद्य कहलाते हैं।
  • राजस्थान में कई श्रेणी के लोक वाद्य है जिनमें प्रमुख श्रेणी हैं - तत्, घन, सुषिर और अवनद्ध वाद्य।

अवनद्ध (ताल) वाद्य (चमड़े से मढ़े हुए) - 

तत् वाद्य -

घनवाद्य -

सुषिर वाद्य - 

1.       जिसके एक ही ओर खाल मढ़ी होजैसे - खंजरीचंगडफडैंरूधौंसातासाकुंड़ी
2.       जिनका घेरा लकड़ी या धातु का हो तथा चमड़ा दोनों ओर मढ़ा होजैसे - मांदलढोलडमरूपखावज
3.       जिनका ऊपरी भाग खाल से ढका हो तथा कोटरीनुमा नीचे का भाग बंद रहता होजैसे- नोबतनगाड़ामाठदमामामाटा।

जन्तर,
इकतारारावणहत्थासारंगी,
चिकाराभपंगकमठकामायचा,
टोटो,
चौतारारवाज,
तन्दुरा,
निशान।

मंजीरा,
झांझ,
करताल,
खड़ताल,
झालर,
चिमटा

बांसुरी,
अलगोजापूंगीशहनाई,
सतारा,
मश्कनड़,
मोरचंग,
बांकिया,
भूंगल,
नागफनी।


सुषिर वाद्य-

  • वे वाद्ययंत्र जो फूंक से बजाये जाते हैं। इस श्रेणी के प्रमुख वाद्ययंत्र निम्नलिखित है-

अलगोजा - 
  • यह बांसुरी के समान बांस की नली से बना वाद्य होता है। इसमें नली के ऊपरी मुख को छीलकर उस पर लकड़ी का गट्टा चिपका दिया जाता है जिससे आवाज निकलती है।
  • वादक एक साथ दो अलगोजे एक साथ मुंह में रखकर बजाता है। अलगोजा वाद्य को आदिवासी भील व कालबेलिया जाति का प्रिय वाद्य है।

नड़ -
  • कगौर वृक्ष की 1 मीटर लम्बी लकड़ी से बनाया जाता है। 
  • माता या भैरव के राजस्थानी भोपे तथा लंगा जाति द्वारा भी बजाया जाता है।
  • करणा भील प्रसिद्ध नड़ वाद्यकार रहा।

सतारा -
  • यह अलगोजा, बांसुरी और शहनाई का समन्वित रूप है। इसमें अलगोजे के समान दो नलियों तथा बांसुरी के समान छः छेद होते हैं।
  • इससे किसी भी इच्छित छेद को बन्द करके आवश्यकतानुसार सप्तक में परिवर्तन किया जा सकता है।
  • सतारा जैसलमेर व बाड़मेर क्षेत्र में गडरिया, मेघवाल और मुस्लिम जाति के गायक बजाते हैं।

पूंगी -
  • घीया या तुम्बे से बना होता है।
  • तुम्बी का पतला भाग लगभग डेढ़ बालित लम्बा होता है।
  • नीचे का हिस्सा गोलाकार होता है।
  • सपेरा जाति, कालबेलिया व जोगी बजाते हैं।

मोरचंग -
  • (आरएएस मुख्य परीक्षा 2010 में)
  • लोहे से बने इस वाद्य को होठों के बीच में रखकर बजाया जाता है।
  • यह एक गोलाकार हैण्डिल से दो छोटी और लम्बी छड़ें निकली होती हैं, इनके बीच में पतले लोहे की लम्बी रॉड रहती है जिसके मुंह पर थोड़ा-सा घुमाव दे दिया जाता है।
  • लंगा जाति द्वारा।

सींगी - 
  • हिरण, बारहसिंगा, भैंसे के सींगों से बना होता है।
  • जोगियों द्वारा बजाया जाता है।

नागफणी - 
  • पीतल की सर्पाकार नली जिसके पिछले हिस्से में छेद होता है।
  • साधु-संन्यासियों द्वारा मन्दिरों में 

तत् वाद्य -

  • वे वाद्य यंत्र जो तार से बने होते हैं। तारों के द्वारा स्वर उत्पत्ति वाले वाद्ययंत्र।

इकतारा -
  • छोटे से गोल तुम्बे में बांस की डंडी फंसाकर बनाते हैं।
  • तुम्बे का छोटा भाग बकरे के चमड़े से मढ़ दिया जाता है।
  • तुम्बे पर बांस की दो खूंटियां लगी होती हैं और ऊपर-नीचे दो तार बंधे होते हैं।
  • इसे नाथ, कालबेलियों और साधु-संन्यासियों द्वारा बजाया जाता है।

चिकारा -
  • कैर की लकड़ी से बना। इनका एक सिरा प्याले के आकार का होता है। जिसके तीन तार होते हैं। गज की सहायता से बजाया जाता है।
  • जोगियों, मेवों द्वारा अलवर में, गरासियों द्वारा उदयपुर, पाली, सिरोही में बजाया जाता है।

जन्तर - 
  • वीणा की आकृति से मिलते इस वाद्य में दो तुम्बे होते हैं। 
  • इसकी डांड बांस की होती है। जिस पर मगर की खाल से बने 22 पर्दे मोम से चिपकाये जाते हैं। परदों के ऊपर पांच या छः तार लगे होते हैं।
  • इस वाद्य यंत्र का प्रयोग बगड़ावतों की कथा गाते समय गूजरों के भोपे गल में लटकाकर करते हैं।

रावण हत्था- 
  • इस वाद्य यंत्र को आधे कटे नारियल की कटोरी पर खाल मढ़ कर बनाया जाता है।
  • इसकी डांड बांस की होती है, जिसमें खूंटिया लगा दी जाती है और नौ तार बांध दिये जाते हैं। 
  • रावण हत्थे की गज धनुष के समान होती है तथा इस पर घोड़े के बाल व घुघरु बंधे होते हैं।
  • इसका प्रयोग पाबूजी, डूंगजी- जंवार जी के भोपे कथाएं गाते समय करते हैं।
  • डूंगजी, पाबूजी के भोपे फड़ बांचते समय रावण हत्थे का प्रयोग करते हैं।

सारंगी -
  • तत् वाद्यों में श्रेष्ठ लोकवाद्य। 
  • सारंगी सागवान, कैर या रोहिड़े की लकड़ी से बनाई जाती है। इसमें कुल 27 तार होते हैं तथा ऊपर की तांते बकरे की आंतों से बनाई जाती हैं।
  • इसका वादन घोड़े की पूंछ के बालों से निर्मित गज से किया जाता है। 
  • सारंगी जैसलमेर और बाड़मेर के लंगा जाति के गायकों तथा मारवाड़ के जोगियों द्वारा गोपीचंद, भर्तृहरि, निहालदे आदि के ख्याल गाते समय प्रयुक्त की जाती है।

भपंग -
  • डमरु की आकृति वाला तुम्बे से बना।
  • भपंग अलवर व मेव क्षेत्र के जोगी प्रमुखतया बजाते हैं।
  • जहूर खां मेवाती प्रसिद्ध भपंग वादक।

कामायचा -
  • यह राजस्थान का प्रसिद्ध तत् लोकवाद्य है जो सारंगी के समान वाद्य है जिसकी तबली चमड़े से मढ़ी गोल व लगभग डेढ़ फुट चौड़ी होती है।
  • इसको बजाने की गज में 27 तार लगे होते हैं। तार बकरे की तांत के बने होते हैं।
  • इसे जैसलमेर, बाड़मेर क्षेत्र में मांगणियार जाति के लोग बजाते हैं। 
  • नाथ पंथ के साधु भर्तृहरि व गोपीचन्द के गीत इस पर गाते हैं।

रवाज़ -
  • यह सारंगी के समान वाद्य है जिसे नखों से बजाया जाता है।
  • इसमें तारों की संख्या 12 होती है।
  • मेवाड़ के राव व भाट जाति के लोग बजाते हैं।

अवनद्ध वाद्य - 

  • ताल से बजने वाले वाद्य

चंग -
  • यह होली पर बजाया जाने वाला प्रमुख ताल वाद्य है। इसे ढप भी कहा जाता है।
  • च्ंग का गोला छोटा लकड़ी से बना हुआ होता है और इसके एक तरफ बकरे की खाल मढ़ दी जाती है। 
  • इसे बजाने वाला कन्धे पर रखकर जाता है। 

डफ -
  • होली के अवसर पर 
  • लोहे या लकड़ी के बड़े चक्र पर खाल मढ़कर। चंग से बड़ा होता है।

माठा - 
  • पाबूजी के पवाड़ों के वाचन के समय भोपे बजाते हैं।

खंजरी -
  • आम की लकड़ी का बना वाद्ययंत्र, जिसे एक ओर खाल से मढ़ा जाता है।
  • राजस्थान में कामड़, भील, नाथ और कालबेलिया जाति के लोग खंजरी बजाते हैं।

डैरूं -
  • आम की लकड़ी का बना वाद्ययंत्र, जिसके दोनों तरफ चमड़ा मढ़ दिया जाता है।
  • गोगाजी के पुजारी इसे बजाते हैं 
  • इसके बीच के हिस्से को दाहिने हाथ स पकड़ते हैं और रस्सी को खींचने पर आवाज उत्पन्न होती है।

मांदल - 
  • यह मृदंग के समान होता है तथा मिट्टी से बनाया जाता है।
  • इसका एक मुंह छोटा व दूसरा बड़ा होता है। इसका मढ़ी हुई खाल पर जौ का आटा चिपकाकर बनाया जाता है।
  • इसे शिव-गौरी का वाद्ययंत्र माना जाता है।

घन वाद्य

  • वे वाद्य यंत्र जो धातु के बने होते हैं।
मंजीरा -
  • यह पीतल और कांसे की मिश्रित धातु का गोलाकार वाद्य होता है। इनके मध्य भाग में छेद कर दो मंजीरों को रस्सी से बांध दिया जाता है।
  • तेरहताली नृत्य में मंजीरे प्रमुख वाद्य यंत्र है।

खड़ताल -
  • यह दो लकड़ी के टुकड़ों के बीच में पीतल की छोटी-छोटी गोल तश्तरियां लगी रहती है जोकि लकड़ी के टुकड़ों को आपस में टकराने से बजती है।
झांझ -
  • यह मंजीरे का विशाल रूप है, इसका व्यास लगभग एक फुट होता है।
  • यह शेखावाटी क्षेत्र के कच्छी घोड़ी तृत्य में ताशें के साथ बजाया जाता है।


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